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परहित सुखाय

Posted: Sun Aug 05, 2012 1:59 pm
by chandresh_kumar
एक राजा को कांच के बरतन का बड़ा शौक था। जो भी अच्छा बरतन दिखता, खरीद लेता था। बड़ा संग्रहालय बन गया। पर इतने सारे बरतन की सफाई तो रोज करनी पड़ती थी।राजा उसके लिए बड़ी ऊँची तनख्वाह देता थ। पर उनका हुकम विषम था। जिस दिन आदमी से एक बर्तन फूट जाता था, राजा उसे फांसी दे देता था >:D । कितने ही आदमीयों को उसने परलोक भेज दिया। आखिर राजा की इस हरकत से पराहित में लगे हुए एकआदमी का दिल पिघल गया। उसने कहा राजन् मुझे नौकरी में रख दो। वह व्यक्ति परहित के लिए ख्यात प्राप्त था, राजा भी इसे आदमी को कभी मारना पडेगा इस ख्याल से हिचक गया। राजा ने कहा – तुम इस नौकरी में मत आओ, पर वह न माना। लंबे अर्से तक तो एक भी बरतन टूटा नहीं लेकिन एक दिन एक बर्तन टूट ही गया। राजा ने देखा यह क्या हो गया ? राजा उस अच्छे आदमी के पास खुद दौड कर जाने लगा। पर यह क्या? वह भला आदमी तो लगा था सारे बर्तन तोड़ देने में, उसने पूरे के पूरे बर्तन तोड़ दिये। एक भी रहने नहीं दिया। राजा कहता है – “पागल, क्या कर रहा है? भले आदमी ने कहा – पहले ही बहुत से आदमी मर गये है, मैं भी मर जाऊँगा, पर ये पूरे के पूरे बर्तन तोड़कर। मैंने 500 आदमियों को बचाया है, क्योंकि आज नहीं तो कल यह बरतन किसी – न किसी के हाथ से फूटनेवाले थे, और वे 500 बेचारे मारे जाते। राजा शरम से मर गया ??? । अपनी गलती समझ गया। बस, 500 को जीवनदान देनेवाले तुझे भी जीवन दान है। :F0 :wD
अगर हम सिर्फ हमारी स्वार्थ पूर्ति करते जायेंगे, तो बहुत मुश्किल से सफल होंगे अथवा असफल ही रहेगे। सारी प्रकृति का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि सारी प्रकृति परहित के लिये ही काम करती है। हमें अगर प्राकृतिक रहना है तो परहित करना ही होगा ।
अष्टादश पुराणेषु,
व्यासस्य वचन द्वयम्
परोपकारः पुण्याय,
परार्थ से पापाय परपीडनम्।।

परोपकार ही पुण्य है। परोपकार ही विश्व के अस्तित्व का आधार है। परोपकार ही मानव जीवन का परमभाग्य है और दूसरों को पीडा देना यही बडा़ पाप है। परपीडा ही जगत् विनाश का पंथ है। अतः मानव मात्र को स्वार्थ का संकोच करके परार्थ का विकास करना चाहिए।

व्यक्तित्व विकास स्वार्थ से नहीं ही शक्य है।